शुरु में लगभग सभी अभ्रक खदानों में काम खुले रूप में होता था जो ‘परचला’ के नाम से जाना जाता था।[1] बाद में अभ्रक खनन के भूमिगत तरीकों को अपनाया गया।
शुरुवाती समय में करीब एक लाख लोगों को इससे रोजगार मिला लेकिन आज बेरोजगारी की स्थिति है। आजीविका चलाने के लिए लोग पुरानी खदानों से अभ्रक के स्क्रैप चुनकर बेचते। अभ्रक श्रमिकों की दयनीय स्थिति का कारण निम्न मजदूरी का समय पर भुगतान का न होना एवं माहजनों से कर्ज लेने था।
अभ्रक - श्रमिक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से काफी पिछड़े होते थे। इन श्रमिकों में अनेक बुरी आदतें भी होती थी जिसके कारण कई हानिकारक बीमारियों का वे आसानी से शिकार हो जाते थे। इन बीमारियों के चलते उनकी आर्थिक स्थिति और भी दयनीय हो जाती थी। अभ्रक श्रमिकों में नशाखोरी, जुआखोरी जैसी बुराईयां आम बात थी। जिसके कारण उनका जीवन-स्तर और दयनीय हो जाता था।वे अपने बच्चों के शिक्षा एवं स्वास्थ्य पर बहुत ही कम खर्च करते थे खदानों में बहुत ही खतरनाक स्थिति में कार्य करने को विवश रहते थे। अभ्रक खदानों में खुले रूप से बाल-श्रमिक का शोषण किया जाता था। कम आय के कारण श्रामिक को अपने बच्चों को इस काम में लगाना पड़ता था। अभ्रक की मार्केटिंग के लिए स्थापित माइका ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (मिटको) बंद के कारण के लोगों के लिए पुरानी खदानों से अभ्रक से स्क्रैप चुनना और उसे दलालों को बेचना ही एकमात्र उपाय था। अभ्रक खदानों पर काम करने वाले श्रमिकों अत्यंत पिछड़े और गंदगी वाले स्थान या जगहों पर रहते थे। उन्हें स्वच्छ पेयजल भी उपलब्ध नहीं था। अभ्रक श्रमिक बहुत से व्यावसायिक बीमारियों से ग्रसित हो जाते थे। आज भी अभ्रक खनन क्षेत्रों में विभिन्न व्यावसायिक बीमारियाँ बच्चों एवं व्यस्कों में पायी जात ...