संस्कृत साहित्य में दो प्रकार की नाट्य विधाएँ मिलती है रूपक एवं उपरूपक। इन दोनों में मौलिक भेद यह है कि नाट्य भेद रूपक सर्वथा रसाश्रित होते हैं, और नृत्यभेद उपरूपक भावाश्रित। साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने भी अठारह उपरूपकों को स्वीकार किया है। ये हैं - नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सटक, नाट्यरासक, प्रस्थानक, उल्लाप्य, काव्य, प्रेंखण, रासक, संलापक, श्रीगादित, शिल्पक, विलासिका, प्रकरणिका, दुर्मल्लिका, हल्लीश एवं भणिका।
उपरूपक के भेदों में नाटिका, नाटक तथा प्रकरण के शंकर से निर्मित होती है। इसमें प्रख्यात नायक एवं अंतःपुर की कन्या नायिका से संबंधित वस्तु होती है। यह स्त्रीबहुल, चतुरंग, कैशिकीवृत्ति युक्त, नृत्य, गीत, पाठ्य एवं रतियुक्त राज्य प्राप्ति रूप फलों वाली होती है। धनंजय के अनुसार इसमें नायक धीरललित प्रकृति का एवं श्रृंगार रस प्रधान होता है। देवी जयेष्ठा नायिका, प्रगल्भा एवं कनिष्ठा नायिका देवी के समान मुग्धा, अत्यंत मनोहर, दिव्य सौंदर्य से युक्त होती है। रामचंद्र के अनुसार इसमें अर्थप्रकृति, कार्यावस्था, संधि, संध्यंग, पताकास्थानक एवं विष्कम्भक आदि नाटक के समान होते हैं।