पर्यावरण मानव जीवन का अभिन्न अंग जिसके संरक्षण के बिना मानव का अस्तित्व सुरक्षित नही है लेकिन अफसोस कि बात है कि। वर्तमान विज्ञान व तकनीकी के युग में मानव की स्वार्थी प्रवृत्ति, औधोगिकरण, रोड चौड़ी करण, वन संसाधन अतिदोहन व अन्य विकास कार्यो के नाम पर वनों के दोहन की वजह से ऑक्सीजन स्रोत नष्ट हो रहे है व कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा मानव व प्रकृति के अस्तित्व के लिए भयानक खतरा पैदा हो गया है। वर्तमान में तेजी से घटते जंगल और बदलते हुए पर्यावरण को बचाने के लिए सदियों से जंगलों के साथ जीवन का संबंध निभाने वाले आदिवासी समुदाय की अहम भूमिका है। भारत मे लगभग 645 अलग-अलग जनजातियाँ निवास करती है। जल ,जंगल और ज़मीन को परंपराओं में भगवान का दर्जा देने वाले आदिवासी बिना किसी दिखावे के जंगलों और स्वयं के अस्तित्व को बचाने के लिए आज भी प्रयासरत है । यह समुदाय परंपराओं को निभाते हुए शादी से लेकर हर शुभ कार्यो में पेड़ो को साक्षी बनाते है । वन- संरक्षण की प्रबल प्रवृत्ति के कारण आदिवासी वन व वन्य- जीवों से उतना ही प्राप्त करते है जिससे उनका जीवन सुलभता से चल सके व आने वाली पीढ़ी को भी वन-स्थल धरोहर के रूप में दिए जा सके । इनमें वन संवर्धन ,वन्य जीवों व पालतू पशुओं कला संरक्षण करने की प्रवृत्ति परंपरागत है। इस कौशल दक्षता व प्रखरता की वजह से आदिवासियों ने पहाड़ों, घाटियों व प्राकृतिक वातावरण को आज तक संतुलित बनाए रखा है। आज़ादी के बाद से तकनीकी और विज्ञान के युग मे संसाधनों के अत्यधिक खनन और कॉरपोरेट्स के हस्तक्षेप व बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं के चलते आदिवासियो की बेदखली हुई, विधिक कानून धराशाही होने लगे, आदिवासियो को बुनियादी जरूरते प्रदान करना, रोजगार, पुनर्वास व उचित मुआवजा प्रदान करना जरू ...