मानव मूलतः सौन्दर्य प्रेमी रहा है वह अपने जीवन के हर क्षेत्रा में हर पल सुन्दर वस्तुओं को देखना चाहता है। मानव की इस सौन्दर्य भावना से प्रेरित होकर ही कला का उद्भव हुआ सत्य और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में कला का स्वरूप है। सत्य और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति में कला है कला ही उनको साकार बनाती है।[1] एक विद्वान ए0 क्लूटन ब्रोक ने कहा है -’’जब मनुष्य के ज्ञान कुशलता और चित्त के आवेग के मिश्रण से ऐसी वस्तु उत्पन्न हो जो कि इन सबसे बड़ी हो’’ उसे ’’कला’’ कहते हैं। वागनर के अनुसार कला मनुष्य के सामाजिक जीवन का उत्कृष्टतम् उदाहरण है। गोथे ने इसे ’’आत्मा का जादू’’ कहा है। जबकि कारलाइल ने कला को सच्चाई से मुक्त आत्मा कहा है।[2] मनुष्य को अपना जीवन सक्रिय तथा गतिमान बनाये रखने के लिये जिस प्रकार भोजन, वस्त्रा और आवास की जरूरत होती है उसी प्रकार उसे क्रमबद्ध एवं सुसंस्कृत होने के लिये कलाओं के सहयोग की आवश्यकता होती है। कला का मनुष्य के जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है। कलात्मक जीवन ही जीवन है अन्यथा यह मानव जीवन पशु के समान हो जाता ळें
“साहित्य संगीत कला विहीनः
साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः”
कला का क्षेत्रा व्यापक है। शिवत्व की उपलब्धि के लिये कलाकार सत्य की सौन्दर्यमयी उपलब्धि करता है वही उपलब्धि कला का रूप होता है। कोई वस्तु ऐसी नहीं जो कला की परिधि में न आती हो। प्रकृति असीम है उसी प्रकार कला भी असीम है प्रकृति की प्रत्येक वस्तु जड़ हो अथवा चेतन कला के क्षेत्रा से परे नहीं है। यह मानव की नैसर्गिक अभिव्यंजना शक्ति है।[4] मनुष्य सौन्दर्य प्रेमी रहा है। प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रेरित होकर वह सुन्दर कलाकृतियों का सृजन करने लगा। कला मनुष्य का अनुभव है और उसके विचारों और भावों को अभिव्यक्त करने का माध्यम।