जाति भेद की समस्या का सूत्रपात वैदिक कालीन समाज व्यवस्था से प्रारम्भ होता है। वर्ण व्यवस्था का जब कोई नाम लेता है तो वेदों, पुराणों, उपनिषदों और स्मृतियों में अंकित सीमित अधिकारों की ओर अनायास ही ध्यान आकर्षित हो जाता है, क्योंकि मानव की समस्त स्वाभाविक शक्तियों का पूर्ण प्रगतिशील विकास ही शिक्षा है। यदि शिक्षा के गौरवपूर्ण इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि भारतीय शिक्षा का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। इसकी प्राचीनता एवं विद्वता का प्रमाण हमें मनुस्मृति से ज्ञात होता है। मनुस्मृति के अन्तर्गत शूद्रों (अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं पिछड़े वर्गो) एवं महिलाओं को सीमित अधिकार प्रदान किये गये थे। जिनमें कर्तव्य अधिक थे और अधिकार कम। इस वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था लेकिन धीरे-धीरे इस वर्ग और जाति की स्थापना वंश के आधार पर होने लगी। और यहीं से शोषण प्रवृत्ति का जन्म हुआ। इस प्रकार भारतीय सामाजिक संरचना में धार्मिक वैधानिकता में सामाजिक क्रियाकलापों पर अधिकार कर उच्च वर्गो के अधिकारों तथा श्रेष्ठताओं को अक्षुण्य बना दिया, फलस्वरुप समाज के कमजोर वर्ग, आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षिक रुप से कमजोर होते चले गये और ब्राह्मण वर्ग ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं पिछड़े वर्गो को शूद्र वर्ग के अन्तर्गत मानकर इन्हे शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया। समाजसेवी संस्थाओं की ओर से इस वर्ग विशेष की शिक्षा की कोई व्यवस्था उन्नीसवीं सदी तक नहीं की गयी।