हिन्दी कविता में प्रकृति को कई रूपों में देखने की परम्परा रही है। कहीं वह संदेशवाहक बनकर आई है, कहीं अनेक रहस्यों के भण्डार-रूप में प्रकाशित हुई हैं, कहीं वह आध्यात्मिक चेतना की प्रतीक बन गई है, कहीं पे्रयसी बनकर प्रकटित हुई है तो कहीं माता बनकर। फिर भी उसके दो प्रमुख रूप हिन्दी-काव्य में उपलब्ध होते हैं। आलम्बन रूप में प्रकृति का चित्रण, उद्दीपन रूप में उसका ग्रहण गुप्त जी के काव्य में प्रकृति के उक्त दोनों रूप मिलते हैं। गुप्त जी प्रकृति के मार्मिक बिम्ब प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। गुप्त जी ने अपनी इन कविताओं में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि ऋतुओं के आलम्बनगत बिम्ब प्रस्तुत किए हैं। वह प्रकृति के उद्दीपक रूप को भी प्रस्तुत करते हैं। गुप्त जी का काव्य प्रकृति के आलम्बन और उद्दीपन रूपों से परिपूर्ण है। गुप्त जी इन कविताओं में वर्षा के अभाव का चित्र अंकित करते हुए जनजीवन के विषाद को नहीं भूलते। वह सूखी प्रकृति का चित्रण तो करते ही हैं, साथ ही लोगों की वेदना को भी अंकित करते हैं। वह वसन्त का आह्वान करके भारत के हर्षोल्लास की कामना करते हैं। ग्रामीण परिवेश से जुड़े होने के कारण उन्होंने वसन्त का वैभव देखा था, तत्पश्चात् बरसात और शरद् का सौन्दर्य अवलोकित किया था। यही सब उनके काव्य में संकलित है। ऋतुओं का यथातथ्य बिम्ब अंकित करते हुए भी वह मानव की अनदेखी नहीं करते। पौष और मार्गशीर्ष के शीत से प्रकम्पित मानव के उद्धार हेतु वह वसन्त का आह्वान करते हैं। ग्रीष्म से पीड़ित प्राणीमात्र के प्राण के लिए वर्षा का अभिनन्दन करते हैं। उनके लिए मानव-समाज महत्त्वपूर्ण है, प्रकृति नहीं। उनको खेतों में फैली पीली-पीली सरसों अच्छी लगती है, आकाश को घेरकर छाये मेघखण्ड भी रुचिकर प्रतीत होते हैं, खे ...