1757 में प्लासी की लड़ाई और 1857 के विद्रोह के बीच ब्रिटिश शासन ने भारत में अपने सौ वर्ष पूरे कर लिये थे। ब्रिटिश शासन ने अपने इन 100 वर्षों में ‘‘सूक्ष्मता के साथ हिंसा का एकाधिकार” स्थापित किया था, इसलिए उसकी प्रजा ने भी उसका जवाब उतनी ही अधिक जवाबी हिंसा के साथ दिया। अगर विद्रोहियों को सार्वजनिक रूप से फांसी देना, तोप से उड़ाना और मनमाने ढंग से गाँवों को जलाना अंग्रेजों के विद्रोह-विरोधी कदमों में शामिल था, तो विद्रोहियों ने भी निर्ममता से स्त्रियों और बच्चों समेत गोरे नागरिकों की हत्या की। इस अर्थ में कानपुर का 27 जून 1857 का हत्याकांड ‘अतिचार’ का कृत्य था, क्योंकि यह उपनिवेशितों की देशी हिंसा का कृत्य था, जिसने उपनिवेशकों की हिंसा के एकाधिकार को तोड़ा।[1] यूं तो 1857 के विद्रोह के फूटने से पूर्व भी भारत में कई स्थानों पर विद्रोह के स्वर फूटने लगे थे जैसे - (1) 1764 में बक्सर के युद्ध के समय हैक्टर मुनरो के नेतृत्व में लड़ रही सेना के कुछ सिपाही विद्रोह कर मीरकासिम से मिल गये। (2) 1806 ई. में बेल्लोरमठ में कुछ भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों द्वारा अपने सामाजिक, धार्मिक रीति-रिवाजों में हस्ताक्षेप के कारण विद्रोह कर मैसूर के राजा का झण्डा फहराया। (3) 1842 ई. में ब्रमा युद्ध के लिए भेजी जाने वाली ब्रिटिश भारत की सेना की 47वीं पैदल सैन्य टुकड़ी के कुछ सिपाही उचित भत्ता न मिलने के कारण विद्रोह कर दिया। (4) 1825 में असम स्थित तोपखाने में विद्रोह हुआ। (5) 1844 में 34वीं एन.आई. तथा 64वीं रेजिमेंट के सैनिकों ने उचित भत्ते के अभाव में सिंध के सैन्य अभियान पर जाने से इंकार कर दिया। (6) 1849-50 में पंजाब स्थित गोविन्दगढ़ की एक रैजिमेंट विद्रोह पर उतर आई इन्हीं घटनाओं ने 1857 के उस विद्रोह क ...