आचार्य बराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूमि के नीचे जल का ज्ञान करानेवाली एक विद्या जिसे कि उदकार्गल कहा हैं ‘उकार्गल’ अर्थात अर्गला (छड़ी) के माध्यम से भूगर्भ के जल का पता करना सृष्टि का आश्रय भूत, तीनों लोको को धारण करने वाला जल व्यापक रूप से पाया जाता हैं इसी कारण से वेदों में जल को यजुर्वेद में कहा है कि विश्व का पालन करने वाला जल प्राणियों के लिए माता के समान होता हैं[1] ऋग्वेद में भुवन के पालक के रूप में जल की वंदना की गई हैं[2] यही नहीं वेदों व पुरानों में भी हजारों वर्षों तक ब्रह्माण्ड जल में स्थित तदुपरांत हिरण्यगर्भ विस्फोट से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई इस प्रकार सृष्टि के प्रारंभ में सर्व प्रथम जल ही था[3] जल के गुण वेदों में यत्र तत्र प्राप्त होते हैं वेदों में ‘जल’ को देवता माना गया है। किन्तु उसे जल न कहकर ‘आपः’ या ‘आपो देवता’ कहा गया है हे जलदेव देवत्व के इच्छुकों के द्वारा इन्द्रदेव के पीने के लिए भूमि पर प्रवाहित शुद्ध जल को मिलाकर सोमरस बनाया गया है। शुद्ध पापरहित, मधुर रसयुक्त सोम का हम भी पान करेंगे। अत आचार्य वराहमिहिर (लगभग 5-6 शती ई.) ने इसे धर्म व यश साधन क रूप में स्वीकार किया हैं[4] जिस तरह मनुष्य के अंग में नाड़ियां हैं उसी तरह भूमि में जल की शिराएँ धाराएँ बहती हैं आकाश से तो एक ही रंग व स्वाद का जल होता हैं परन्तु पृथ्वी की विशेषता के कारण अनेक प्रकार के रस व स्वाद वाला हो जाता हैं[5]