प्राचीन काल से दललत कुचला एवं दबाया जा रहा था। पशुवत जीवन को उसने अपनी लनयलत मान लिया था, लेकिन समयांतर में दलितों में मुक्ति-चेतना जागृत होती गई और वह अपने मानवोचित अधिकारों के लिये सतर्क एवं सजग बनता गया। इन सामाजिक अवस्थाओं परिवर्तन का प्रतिबिम्ब साहित्य में उभरकर सामने आया। प्राचीन साहित्य में दलित दमन एवं दलन का वर्णन मिलता रहा है, जबकि परवर्ती रचनाओं में बंधनों के इस मकड़जाल से मुक्ति कि छटपटाहट स्पष्ट रूप से द्रष्टिगत होती है। यह मुक्तिसंघर्ष समयकाल अनुसार तीव्र से तीव्रतर बनता प्रतीत होता है। दलित कविता इसी पारिवैशिक परिवर्तनों की प्रत्यक्षदर्शी बनी रही है। जहाँ प्राचीन कालीन रचनाओं में अत्याचारों का वर्णन करके सामाजिक कलंक को सामने लाने की वृत्ति मिलती है। वहीँ आधुनिक कविता में ऐसी अतार्किक एवं अमानवीय समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश एवं विद्रोह कि तीव्रता महसूस की जा सकती है।