प्राचीन भारतीय समाज में पुण्यप्रद धार्मिक कृत्य के रूप में दान का विशिष्ट स्थान रहा है, जिसकी परम्परा ऋग्वैदिक काल से लेकर आज तक चलती आ रही है। यद्यपि दान को मूलतः धार्मिक व्यवस्था के अन्तर्गत रखा जाता है किन्तु वास्तव में अनेक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का निराकरण दान व्यवस्था के माध्यम से प्रतिपादित किया गया। दान की इसी उपादेयता के कारण शास्त्रकारों ने प्रत्येक युग में इसकी महत्ता की चर्चा भिन्न-भिन्न प्रसंगों में की है।